आज की जीवन शैली (विशेषकर युवाओं की) को देखकर लगता है भारत में लास वेगास उतर आया है. सर से पांव तक आधुनिकता की होड़ लगी है, नैतिकता की बातें विस्मृत हो चुकी हैं, वर्जनाएं रद्दी की टोकरी में फ़ेंक दी गयी हैं, अश्लील क्या होता है? कुछ नहीं, संस्कार की बातें दकियानूसी लगने लगी हैं, एक-दूसरे को लांघकर आगे निकल जाने की ऐसी होड़ लगी है कि फैलती कामनाओं के बीच भावनाएं दब गयी हैं, जीने को अपने निजी विचार, अपना घेरा है, इसमें औरों का कोई स्थान नहीं है. एक समय था ( ज्यादा नहीं कुछ दशक पहले ) संबंधों की एक गरिमा हुआ करती थी, आज के सन्दर्भ में उसका कोई स्थान नहीं है . वेश-भूषा, खान-पान, जीवनचर्या में मेरा भारत महान कहीं नज़र भी आता है क्या ? जिस हिंदी पर हमें नाज था, वह पिछडे लोगों की भाषा बनती जा रही है . शिष्टता, आदर-सम्मान, व्यवहार, बोली- जो व्यक्ति की सुन्दरता मानी जाती थी,उस पर आडम्बर का लेप लग गया है. लज्जा, जो नारी का आभूषण हुआ करता था, आज की लाइफ- स्टाइल में कुछ इस तरह गुम हुआ कि कहीं भीड़ में जाओ तो लगता है कि अपना वजूद ही गुम हो गया है और खुद की आँखें ही शर्मा जाती हैं. भागम-भाग का ऐसा समां है कि न किसी से कुछ पूछने का समय है और न ही अपनी कहानी सुनाने की कोई जगह या गुँजाईश बची है. आज आलम यह है कि "आधुनिकता ओढ़कर हवा भी बेशर्म हो गई है."
आज की लाइफ स्टाइल ये है कि सब अपने अपने काम में व्यस्त हैं, किसी के पास किसी के लिए वक्त नहीं है, सब अपनी परेशानियों में डूबे हुए हैं या फिर अपनी दुनिया में अच्छे से अच्छे रंग भरने में लगे हुए हैं. पहले लोग दूसरों के लिए भी जीते थे, आज सिर्फ खुद के लिए. आज कम्प्यूटर और मोबाईल ने परायों को करीब ला दिया है और अपनों को दूर कर दिया है. कभी-कभी लगता है की अच्छा है कि ये मशीन (कम्प्यूटर) बना, अगर यह ना होता तो बहुत सारे लोग बीमार हो जाते, डिप्रेशन के शिकार हो जाते पर क्या ये होने के बावजूद लोग इस बीमारी के शिकार नहीं हैं?
आज लोग प्रेम को तरसते हैं पर ऐसा क्यों? हमने कभी अपने बड़ों के मुँह से सुना था कि घर में प्यार ना मिले तो बच्चा बाहर जाता है तो क्या हम में से अधिकतर लोगों को प्रेम नहीं मिला या कम पड़ रहा है!!
पता नहीं चल रहा कि कौन गलत है या सही!! पर सब कुछ मिलने के बाद भी हरेक की जिन्दगी में एक अधुरापन दिखाई देता है. लगता है कि सब को "खुद" की जिन्दगी जीने की लत पड़ चुकी है कोई उस में दखलंदाजी नहीं चाहता है. ना ही किसी को किसी की सलाह की जरूरत है. "मैं" सर्वोपरि बन गया है तो "हम" की प्रासंगिकता पर ही सवाल खड़े हैं ?? "इटस माई स्पेस" का जुमला प्रचलन में है. लेकिन जिन्दगी यहाँ एक सवाल जरूर खड़ा करती है कि क्या "मैं" आज संतुष्ट है?
आज के दौर में पिज्जा एम्बुलेंस से फास्ट पहुँचता है घर. शॉपिंग मॉल्स, मल्टी-प्लेक्स, लेटेस्ट मॉडल की गाड़ियाँ, महिला मित्रों की मंडली, डिस्को, पब्, फास्ट- फूड, आई-पॉड, आई-फ़ोन, लैपटॉप, ब्रांडेड कपड़े (विशेषकर कमर से लगभग एक फ़ीट नीचे झूलती पतलून), अजीबो-गरीब और डरावनी स्टॉइल में कटी जुल्फ़ें, जूते इत्यादि शायद यही पहचान बन गई है आज की. आज के बच्चे “प्ले-स्टेशन” खेलेंगे, पर “लट्टू” या “गिल्ली–डँडा” नहीं. जगह-जगह से फटे कपड़े-फैशन का पर्याय बन चुके हैं. मर्डर 3"देखना अप-टू-थ मार्क है "तीसरी कसम" देखना तौहीन है. बड़ों को पैर छू कर प्रणाम करना डाउन-मार्केट है. गेहूँ-बाजरे और मक्के की रोटी की सल्तनत में पिज्जा प्रभावी घुसपैठ कर चुका है. मारवाड़ी वासा (भोजनालय) विलुप्त होने की कगार पर हैं आज मैक्डोनाल्डस का जमाना है. मंदिर से ज्यादा मदिरालय हो गए हैं. भजन की जगह रैप ने ले ली है. गाँव की जगह रिसोर्ट ने ली है. बनारस की जगह बैंकॉक ने ले ली है. धोती/पैजामे की जगह बरमुडा (एक अनूठा वस्त्र) अपना परचम लहरा रहा है. साड़ी तो पहले ही अपनी नयी-नवेली सौतन स्कर्ट के आगे फ़ीकी पड़ चुकी है. इंग्लिश-हिन्दी की जगह एक नए ग्रह की भाषा हिंग्लिश अपने पैर पसार चुकी है. माता जी तो मॉम (मोम की) बन ही चुकी हैं. पिताजी अब डैड ( जो लगभग डेड ही हैं ) हो गए हैं. आज ऊपरी दिखावा ही सब कुछ है.
ज़माने के साथ कदम मिलाना अच्छी बात है, पर यह भी देखा जाए कि कदम मिलाते हुए कदम बहक ना जाएं! कुछ बातें हैं जो आज की लाइफ-स्टाइल में अच्छी भी हैं – जैसे कि आज का युवा वर्ग बहुत प्रैक्टिकल है, सकारात्मक है, आगे बढ़ने की चाह है. इसलिए कह सकते हैं की आज की लाइफ-स्टाइल में कुछ सकारात्मक भी है लेकिन नकारात्मक की तुलना में कम. आज की लाइफ-स्टाइल को जरूरी बंदिशें भी पसंद नहीं हैं.
आज मौजूदा पीढ़ी जीवन के हर मूल्य से आज़ाद हुई नज़र आती है. सभ्यता,संस्कृति की दुहाई देनेवाले देश में संस्कृति मखौल का विषय बन गई और सभ्यता धुंधली पड़ रही है. पहनावे में,बोलचाल में,रहन-सहन में हर गलत चीज को मान्यता मिल रही है. आज की मौजूदा पीढ़ी के पास कॉकटेल है पूरब और पश्चिम का और अनुभवी लोगों का कहना है कि कॉकटेल सदैव रिस्की है क्यूँकि इसका खुमार (हैंगओवर) जल्दी जाता नहीं है.
परिवर्तन संसार का नियम है, और जीवन शैली का समय के साथ-साथ परिवर्तित होते रहना लाज़मी है लेकिन मान्यताओं और मूल्यों की तिलांजलि दे कर नहीं| हाँ परिवर्तन की दिशा इन्सान के संतुष्टि - असंतुष्टि को जरुर प्रभावित करती है| आज घोर भौतिकतावाद का बोल-बाला है और ये दिन प्रतिदिन बलबती होती जाए इसके लिए हर स्तर पर चाहे-अनचाहे प्रयास किये जा रहें है| इन्सान खासकर युवा एक ऐसी भीड़ का हिस्सा बनकर रह गया है, जहाँ सच-झूठ, अच्छा-बुरा का फैसला सदियों से हर कसौटियों पर खरे उतरे नीतियों-सिद्धांतो के आधार पर नहीं बल्कि भीड़ और दिखावे की मानसिकता के आधार पर लिया जाने लगा है| भावनाएँ, लगाव, आपसी सम्मान, प्रेम जैसी अमूल्य सम्पदाओं के कोष क्षीर्ण हों चले हैं, परिणाम स्वरुप, इन्सान प्राकृतिक नियमों के विपरीत स्व-सम्पूर्णता की ओर अग्रसर है, संयुक्त परिवार टूट रहें हैं, गृहस्थियां अलगाव की भेट चढ़ रही हैं, सामाजिक नियम का पालन करना बौद्धिक पिछ ड़ेपन की निशानी समझी जाने लगी है.
आलेख को ज्यादा न विस्तृत करते हुए यदि अपनी बात कहूँ तो जीवन शैली में आया आज का परिवर्तन एक दिशाहीन परिवर्तन है जो अनीति, अन्याय, अत्याचार, अपव्यय, अश्लीलता, अविश्वास, अशांति, अलगाव और न जाने कितने अनगिनत दुर्गुणों की जननी है..........आरती