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Saturday 19 October 2013

यह परिवर्तन दिशाहीन है ...

आज की जीवन शैली (विशेषकर युवाओं की) को देखकर लगता है भारत में लास वेगास उतर आया है. सर से पांव तक आधुनिकता की होड़ लगी है, नैतिकता की बातें विस्मृत हो चुकी हैं, वर्जनाएं रद्दी की टोकरी में फ़ेंक दी गयी हैं, अश्लील क्या होता है? कुछ नहीं, संस्कार की बातें दकियानूसी लगने लगी हैं, एक-दूसरे को लांघकर आगे निकल जाने की ऐसी होड़ लगी है कि फैलती कामनाओं के बीच भावनाएं दब गयी हैं, जीने को अपने निजी विचार, अपना घेरा है, इसमें औरों का कोई स्थान नहीं है. एक समय था ( ज्यादा नहीं कुछ दशक पहले ) संबंधों की एक गरिमा हुआ करती थी, आज के सन्दर्भ में उसका कोई स्थान नहीं है . वेश-भूषा, खान-पान, जीवनचर्या में मेरा भारत महान कहीं नज़र भी आता है क्या ? जिस हिंदी पर हमें नाज था, वह पिछडे लोगों की भाषा बनती जा रही है . शिष्टता, आदर-सम्मान, व्यवहार, बोली- जो व्यक्ति की सुन्दरता मानी जाती थी,उस पर आडम्बर का लेप लग गया है. लज्जा, जो नारी का आभूषण हुआ करता था, आज की लाइफ- स्टाइल में कुछ इस तरह गुम हुआ कि कहीं भीड़ में जाओ तो लगता है कि अपना वजूद ही गुम हो गया है और खुद की आँखें ही शर्मा जाती हैं. भागम-भाग का ऐसा समां है कि न किसी से कुछ पूछने का समय है और न ही अपनी कहानी सुनाने की कोई जगह या गुँजाईश बची है. आज आलम यह है कि "आधुनिकता ओढ़कर हवा भी बेशर्म हो गई है."
आज की लाइफ स्टाइल ये है कि सब अपने अपने काम में व्यस्त हैं, किसी के पास किसी के लिए वक्त नहीं है, सब अपनी परेशानियों में डूबे हुए हैं या फिर अपनी दुनिया में अच्छे से अच्छे रंग भरने में लगे हुए हैं. पहले लोग दूसरों के लिए भी जीते थे, आज सिर्फ खुद के लिए. आज कम्प्यूटर और मोबाईल ने परायों को करीब ला दिया है और अपनों को दूर कर दिया है. कभी-कभी लगता है की अच्छा है कि ये मशीन (कम्प्यूटर) बना, अगर यह ना होता तो बहुत सारे लोग बीमार हो जाते, डिप्रेशन के शिकार हो जाते पर क्या ये होने के बावजूद लोग इस बीमारी के शिकार नहीं हैं?
आज लोग प्रेम को तरसते हैं पर ऐसा क्यों? हमने कभी अपने बड़ों के मुँह से सुना था कि घर में प्यार ना मिले तो बच्चा बाहर जाता है तो क्या हम में से अधिकतर लोगों को प्रेम नहीं मिला या कम पड़ रहा है!!
पता नहीं चल रहा कि कौन गलत है या सही!! पर सब कुछ मिलने के बाद भी हरेक की जिन्दगी में एक अधुरापन दिखाई देता है. लगता है कि सब को "खुद" की जिन्दगी जीने की लत पड़ चुकी है कोई उस में दखलंदाजी नहीं चाहता है. ना ही किसी को किसी की सलाह की जरूरत है. "मैं" सर्वोपरि बन गया है तो "हम" की प्रासंगिकता पर ही सवाल खड़े हैं ?? "इटस माई स्पेस" का जुमला प्रचलन में है. लेकिन जिन्दगी यहाँ एक सवाल जरूर खड़ा करती है कि क्या "मैं" आज संतुष्ट है?
आज के दौर में पिज्जा एम्बुलेंस से फास्ट पहुँचता है घर. शॉपिंग मॉल्स, मल्टी-प्लेक्स, लेटेस्ट मॉडल की गाड़ियाँ, महिला मित्रों की मंडली, डिस्को, पब्, फास्ट- फूड, आई-पॉड, आई-फ़ोन, लैपटॉप, ब्रांडेड कपड़े (विशेषकर कमर से लगभग एक फ़ीट नीचे झूलती पतलून), अजीबो-गरीब और डरावनी स्टॉइल में कटी जुल्फ़ें, जूते इत्यादि शायद यही पहचान बन गई है आज की. आज के बच्चे “प्ले-स्टेशन” खेलेंगे, पर “लट्टू” या “गिल्ली–डँडा” नहीं. जगह-जगह से फटे कपड़े-फैशन का पर्याय बन चुके हैं. मर्डर 3"देखना अप-टू-थ मार्क है "तीसरी कसम" देखना तौहीन है. बड़ों को पैर छू कर प्रणाम करना डाउन-मार्केट है. गेहूँ-बाजरे और मक्के की रोटी की सल्तनत में पिज्जा प्रभावी घुसपैठ कर चुका है. मारवाड़ी वासा (भोजनालय) विलुप्त होने की कगार पर हैं आज मैक्डोनाल्डस का जमाना है. मंदिर से ज्यादा मदिरालय हो गए हैं. भजन की जगह रैप ने ले ली है. गाँव की जगह रिसोर्ट ने ली है. बनारस की जगह बैंकॉक ने ले ली है. धोती/पैजामे की जगह बरमुडा (एक अनूठा वस्त्र) अपना परचम लहरा रहा है. साड़ी तो पहले ही अपनी नयी-नवेली सौतन स्कर्ट के आगे फ़ीकी पड़ चुकी है. इंग्लिश-हिन्दी की जगह एक नए ग्रह की भाषा हिंग्लिश अपने पैर पसार चुकी है. माता जी तो मॉम (मोम की) बन ही चुकी हैं. पिताजी अब डैड ( जो लगभग डेड ही हैं ) हो गए हैं. आज ऊपरी दिखावा ही सब कुछ है.
ज़माने के साथ कदम मिलाना अच्छी बात है, पर यह भी देखा जाए कि कदम मिलाते हुए कदम बहक ना जाएं! कुछ बातें हैं जो आज की लाइफ-स्टाइल में अच्छी भी हैं – जैसे कि आज का युवा वर्ग बहुत प्रैक्टिकल है, सकारात्मक है, आगे बढ़ने की चाह है. इसलिए कह सकते हैं की आज की लाइफ-स्टाइल में कुछ सकारात्मक भी है लेकिन नकारात्मक की तुलना में कम. आज की लाइफ-स्टाइल को जरूरी बंदिशें भी पसंद नहीं हैं.
आज मौजूदा पीढ़ी जीवन के हर मूल्य से आज़ाद हुई नज़र आती है. सभ्यता,संस्कृति की दुहाई देनेवाले देश में संस्कृति मखौल का विषय बन गई और सभ्यता धुंधली पड़ रही है. पहनावे में,बोलचाल में,रहन-सहन में हर गलत चीज को मान्यता मिल रही है. आज की मौजूदा पीढ़ी के पास कॉकटेल है पूरब और पश्चिम का और अनुभवी लोगों का कहना है कि कॉकटेल सदैव रिस्की है क्यूँकि इसका खुमार (हैंगओवर) जल्दी जाता नहीं है.
परिवर्तन संसार का नियम है, और जीवन शैली का समय के साथ-साथ परिवर्तित होते रहना लाज़मी है लेकिन मान्यताओं और मूल्यों की तिलांजलि दे कर नहीं| हाँ परिवर्तन की दिशा इन्सान के संतुष्टि - असंतुष्टि को जरुर प्रभावित करती है| आज घोर भौतिकतावाद का बोल-बाला है और ये दिन प्रतिदिन बलबती होती जाए इसके लिए हर स्तर पर चाहे-अनचाहे प्रयास किये जा रहें है| इन्सान खासकर युवा एक ऐसी भीड़ का हिस्सा बनकर रह गया है, जहाँ सच-झूठ, अच्छा-बुरा का फैसला सदियों से हर कसौटियों पर खरे उतरे नीतियों-सिद्धांतो के आधार पर नहीं बल्कि भीड़ और दिखावे की मानसिकता के आधार पर लिया जाने लगा है| भावनाएँ, लगाव, आपसी सम्मान, प्रेम जैसी अमूल्य सम्पदाओं के कोष क्षीर्ण हों चले हैं, परिणाम स्वरुप, इन्सान प्राकृतिक नियमों के विपरीत स्व-सम्पूर्णता की ओर अग्रसर है, संयुक्त परिवार टूट रहें हैं, गृहस्थियां अलगाव की भेट चढ़ रही हैं, सामाजिक नियम का पालन करना बौद्धिक पिछ ड़ेपन की निशानी समझी जाने लगी है.
आलेख को ज्यादा न विस्तृत करते हुए यदि अपनी बात कहूँ तो जीवन शैली में आया आज का परिवर्तन एक दिशाहीन परिवर्तन है जो अनीति, अन्याय, अत्याचार, अपव्यय, अश्लीलता, अविश्वास, अशांति, अलगाव और न जाने कितने अनगिनत दुर्गुणों की जननी है..........आरती

Badnaam Basti by Jagdish Solanki | जगदीश सोलंकी : बदनाम बस्ती

Wednesday 13 February 2013

वैलेंटाइन डे का विकृत स्वरुप


हमारी भारतीय संसकृति हमें ये कदापि नहीं सिखाती कि हम किसी महान व्यक्तित्व की क़ुरबानी (रोम शासकद्वारा संत वैलेंटाइन को फांसी)पर तमाचा मारें | वर्तमान समय में ऐसा ही हल कुछ वैलेंटाइन डे का है जिसने आज हमारे समक्ष सामाजित पतन की स्थिति पैदा कर दी है |
वैलेंटाइन डे का विकृत स्वरुप

जब रोम शासक क्लाडियस ने विवाह पर प्रतिबन्ध लगाया क्योंकि उसे लगता था की विवाहित कभी अच्छे सैनिक नहीं हो सकते किन्तु यह बात रोम चर्च के महान पादरी (संत वैलेंटाइन )को बिलकुल रास नहीं आई और उन्होंने विवाह के पवित्र बंधन की जमकर वकालत की क्योंकि उन्हें पता था विवाह न करने पर ये लोग वैश्यावृत्ति की और प्रेरित होंगे | उन्होंने तो स्वयं को कुर्बान कर दिया परन्तु वर्तमान पीढ़ी उनकी इस क़ुरबानी का मजाक उड़ाते हुए उनकी पवित्र भावना को भुलाकर इस दिन को मात्र युवक -युवतियों के बीच में रोमांस के विकृत स्वरुप के रूप में मनाती है |इसके लिए प्रोत्साहन भावी पीढ़ी के लिए अपराध है|

Friday 26 October 2012

सारे जगत को हिंदू बना देते ..
सारी पृथ्वी पर भगवा लहरा देते ...
हम हिन्दुओ में ही एकता नहीं है ...
अयोध्या में तो क्या ..अरब ..में भी "राम मंदिर "बनवा देते ..

Wednesday 10 October 2012

भारत का धर्मनिरपेक्ष स्वरुप



नव स्वतंत्र भारत को सेकुलर स्टेट घोषित कर दिया गया | हम खुले कंठ से यह घोषणा कर सकते हैं कि वर्तमान भारत के कर्णधारों ने इसे जिस पथ पर डाला है उससे यह राष्ट्र अविलम्ब ही सच्चे अर्थों में धर्मनिरपेक्ष (धर्मरहित) राष्ट्र बन ही जायेगा |कांग्रेस कि द्रष्टि में हिन्दू तो सदा से ही सौतेली माँ के बेटे रहे हैं और आज भी हैं | बची खुची हिन्दू भूमि में भी - अपने को हिन्दू कहना साम्प्रदायिकों कि लिस्ट में अपना नाम लिखना समझा जाता है और खतरे से खाली भी नहीं है|
इस्सके अतिरिक्त जब यहाँ मुस्लिम समर्थक नीति चल रही है फिर सामान बर्ताव कहाँ ?

सभी हिन्दू संस्थाओं और करोडों हिन्दुओं के चिल्लाने तथा सत्याग्रह करने पर भी "गोवध बंदी-कानून" इसलिए नहीं बनता कि मुसलमानों के कोमल ह्रदय पर ठेस लग जायेगी और हिन्दुओं के लाख विरोध करने पर भी "तलाक बिल" आदि संस्कृति घातक कानून पास हो जाते हैं ,क्यों ?
क्योंकि निर्जीव हिन्दुओं का विरोध नगण्य है |

सरकार (कांग्रेस + स.पा.) के इसी मुस्लिम समर्थक रवैये के कारण ही लकनऊ में सड़कों पर ही माँ बहनों के ही कपडे फाड़ दिए जाते हैं और मुंबई में अमर जवान स्मारक को लात मार कर गिराया जाता है | क्यों ?

क्योंकि ऐसा करने वालों कि पीठ पर हाथ रखने के लिए तो है ही....

समानता लाने के लिए सरकार वैदिक आदर्शों के उच्च शिखर पर चढ़ी हुई हिन्दू जनता को तलहटी में खडी  हुई  मुस्लिम और ईसाइयों कि तरफ घसीटना चाहती है |

Saturday 29 September 2012

शास्त्रों में मांस भक्षण का विधान है अथवा नहीं


पाश्चात्य एवम म्लेच्छ सभ्यता की देन के कारन  इसका दुष्प्रचार बढ़ गया है, किन्तु सनातन धर्म  मांस -भक्षण की आज्ञा नहीं देता और देता भी है तो मात्र विशेष परिस्थितियों में तथा जाती विशेष के लिए ही |
कुछ विधर्मी लोगो का कहना है कि '' ब्राह्मणग्रंथो, श्रौत सूत्रों ,उपनिषदों आदि तक में मांस खाना लिखा है | इस शंका समाधान के लिए हमें शास्त्र के विभिन्न पहलुओ को ध्यान में रखना पड़ेगा क्योकि शास्त्रों इसका उल्लेख अलग- अलग आशयों से किया गया है |
यहाँ यह बताना आवश्यक है कि शास्त्रों में विधि नहीं ,परिसंख्या है जिसका अर्थ है - किसी अव्यवस्थित प्रवत्ति को सीमित करके शनैः -शनैः उससे निवृत्त करना |
श्रीमद्भागवत के एकादश स्कन्ध में इस समस्या पर निर्णय दिया गया है -

                                  लोके व्यवायामिषमद्यासेवा, नित्यास्तु जन्तोर्नहि  तत्र चोदना |
                                   व्यवस्थितिस्तत्र विवाहयज्ञसुराग्रहैरासु निव्रत्तिरिषटा       || श्रीमद्भागवत११ /४११

अर्थात्-संसार में मद्य  मांस और व्यभिचार से तीन प्रधान दुर्व्यसन स्वाभाविक है |इनके लिए शास्त्र विधि और प्रचार की आवश्यकता नहीं है ,क्योकि पशु पक्षी आदि योनियों में भटकते हुए -आज नर शरीरधारी भी हम पूर्वजन्मों में सतत अभ्यास के कारन देखने में नर
किन्तु रहन -सहन में अब भी पशु प्रवत्ति के कारन कोरे जंतु है ,इसलिए उक्त दुर्व्यसनो की प्रवात्ति की रोकथाम के लिए विवाह ,यज्ञ और सुराघ्राण की व्यवस्था की गयी |
ब्राह्मण ग्रंथो के बहुत से प्रकरणों में मांस ,मेद, छाग, अजा आदि शब्दों को देखकर ही वैदिक अर्थ प्रणाली को न जानने वाले भ्रमोत्पादन कर लेते है परन्तु शतपथ ब्राह्मन में उक्त सब शब्दों की परिभाषाये नियुक्त कर दी गयी है |
वहा एक दीर्घ प्रकरण देकर यह प्रकट किया गया है -

1-ब्रीहीयवौ............यदा विष्टान्यथ लोमानि भवन्ति ,यदापआनयत्यथ त्वग़ भवति | यदा स यौत्यथ मांसम भवति  | ''शत्पथ  १ / २ / १ / ८ ''

अर्थात -वह तत्व अनेक पदार्थो में अपक्रमण करता हुआ ब्रीही और यव में मिला |सो जब धान और जौ को पीसा जाये तो उस चूर्ण को याज्ञिक भाषा में '''लोम''' कहते है ,जब उस आटे को गूँधा जाये तो उस पीठी को ''त्वक्''' कहते है जब पीठी को घी में पकाया जाये
 तो उसे मांस कहते है | गूदे और गिरी का तो मांस के अतरिक्त और कोई नाम ही नहीं है |
एतद ह वै परममन्नाद्यम यं मांसम|| '''शत्पथ ११ / ७ '''
अर्थात -परमान्न का नाम मांस है |
 परमा न्नम  तु पायसं | '''अमरकोष २ / ७ / २५ ''''
अर्थात -परमान्न खीर को कहते है |
यदिमा आप एतानि मन्सानि | ''शत्पथ  ७ / ४ / २ ''
अर्थ -इन जलो को मांस कहते है |
तोक्मानि मांसम | शत्पथ ''८ / ३ ''
अर्थ -तोकम का नाम मांस है |
तोक्मशब्देन  यवा विरुढ उच्यन्ते | '''कात्यायन सूत्र  कर्क भाष्य १८ '''
अर्थ -हरे जौ को तोक्म कहते है|
तस्य यन्मान्सम समसोत्त्द गुग्गुल्वाभवत | ''ताण्डय २४ /१३ / ५ ''
अर्थ उस व्रक्ष के मांस {गूदा } से गुग्गुल बना है |
इसी प्रकार च्यवनप्राश में पड़ने वाले एक कंदा का नाम ऋषभक है ,वृषभ ,गो ,धेनु आदि उसके पर्यायवाची है |इसी प्रकार मुन्नका को गोस्तनी ,गोभी को गोजिव्हा ,घीक्वार {elovera}के गूदे को कुमारिका मांस कहते है |
गाय सम्बन्धी समस्त पदार्थो को ''गव्य'' एवं वैदिक प्रक्रिया में '''गाव'''कहते है,तथा छागा बकरी के दूध को ''छाग ''कहते है |
 

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